भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

’आमीन’ के लिए आमीन (कमलेश्वर) / आलोक श्रीवास्तव-१

Kavita Kosh से
203.122.32.22 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:53, 23 जून 2008 का अवतरण (New page: आमीन के लिए आमीन कमलेश्वर आलोक की ग़ज़लें,नज़्में,दोहे और गीत पढ़ जाने ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आमीन के लिए आमीन कमलेश्वर

आलोक की ग़ज़लें,नज़्में,दोहे और गीत पढ़ जाने के बाद मैंने सोचा कि इनमें ऐसा क्या है जो सबसे हट कर मेरे दिलो-दिमाग़ पर दस्तक देता है, क्योंकि इधर बेहद तरो-ताज़ा कुछेक शायरों की किताबों की सोहबत में रहने का मुझे मौक़ा मिला. उनके शेरों की चमक, दमक और गमक अभी भी मेरे मन में मौजूद है. दुष्यंत के बाद और साथ ग़ज़ल ने इधर आम आदमी की चिंताओं और वक़्त की त्रासदियों को भी अपना विषय बनाया है और अपने कथन के सरोकार का विस्तार किया है. आलोक की इन रचनाओं में वो सरोकार भी मौजूद हैं लेकिन जिस बात ने मेरे दिलो-दिमाग़ पर अलग से दस्तक दी, वो है हमारे वजूद की ज़िंदगी से जुड़े बेहद ताज़ा और संवेदनात्मक अक्स, जिनकी उजली परछाइयां ता-ज़िंदगी हमारे साथ रहती हैं और दिलों की नमी को बरक़रार रखती हैं. अच्छा ये भी लगा कि आलोक की भाषा में हिंदी के कुछ लिखित शब्द पिघलकर अपने आप आमफ़हम बन गए हैं और बेहद घरेलू शब्द 'तुरपाई' हमारी मसक गई संवेदनाओं की सिलाई कर देता है-

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं, तब- मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

ग़ज़ल का ये नया ही नहीं, अनोखा अनुभव है. वैसे भी शेरो-शायरी में घरेलू छवियां बहुत कम मिलती हैं. हिंदी कविता में से 'मां','बाबूजी' के अक्स बिल्कुल ग़ायब ही हो गए हैं. लीजिए आलोक की ग़ज़लों में 'बाबूजी'से भी मिल लीजिए-

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी सबको बांधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है अम्मा जी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन मेरे मन का आधा-साहस, आधा डर थे बाबूजी

यही है हमारी ख़ालिस तहज़ीब और अनुभव. जो हमारी विविधतावादी हिंदुस्तानियत को रेखांकित करते हुए मज़हबी मजबूरियों और उसकी सोच की सीमाओं को लांघ जाती है. अब ज़रा रोज़-मर्रा के 'देहरी न चढ़ने देने' वाले मुहावरे का अनोखा अंदाज़ और प्रयोग भी देख लीजिए-

हम उसे आंखों की देहरी नहीं चढ़ने देते नींद आती न अगर ख़्वाब तुम्हारे लेकर

यों तो ताजमहल पर लगातार और तरह-तरह से लिखा गया है. साहिर की लाइनें तो हिंदुस्तान की यादों में आधुनिक शिलालेख की तरह लिखी हुई हैं. उसी के साथ गंगा-जमनी संस्कृति का ये नज़रिया भी ताजमहल की सांसों में, साहिर साहब द्वारा तलाशी हुई पसीने की ख़ुशबू और उनकी बेलाग-बयानी के साथ-साथ जमुना जी की महक को एक पहचान बनाकर भारतीय धरती की सदियों पुरानी विरासत से जोड़ कर ताजमहल को हमारी मिली-जुली परम्परा का प्रतीक बना देता है. ये नज़रिया भी देख लीजिए-

उजली-उजली देह पर, नक़्क़ाशी का काम ताजमहल की ख़ूबियां, मज़दूरों के नाम

मां-बेटे के नेह में एक सघन विस्तार ताजमहल की रूह में, जमना जी का प्यार

कहा जाता है कि ग़ज़ल हमारी उर्दू की आबरू है. आलोक और अन्य कई ख़ास कवियों-शायरों की इबारत को सामने रख कर कहा जा सकता है कि अब ग़ज़ल हमारी तहज़ीब की आबरू भी है. आमीन!

-कमलेश्वर