Last modified on 14 नवम्बर 2017, at 20:40

कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ / धीरज श्रीवास्तव

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:40, 14 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरज श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!

यदि हाथ लगाऊँ जो अपना
हो जाये सोना भी माटी!
ऊपर से पुरखे समझाते
हैं याद दिलाते परिपाटी!
दूजे देकर फर्ज चुनौती
दो-दो हाथ करे तब भागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!

इक ओर सुखों की इच्छा है
औ इधर निमन्त्रण है दुख का!
है धुंध बहुत ही अंतस में
सब रंग उड़ चुका है मुख का!
किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!

कर्ज करे आँगन में नर्तन
छाती पर मूँग दले बनिया!
खाली-खाली बोझिल बर्तन
बैठ भूख से रोये धनिया!
भाग रहे हम पीछे पीछे
अम्मा की बीमारी आगे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!

ये जग हँसता है देख मुझे
राहों के पत्थर टकरायें!
ये शीतल मंद हवायें भी
भीतर से मुझको दहकायें!
और ज़रूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!

बूँद पसीने की लेकर मैं
गूँथ रहा कर्मों का आटा!
राह तकी है मैंने तेरी
सोच तुम्हंे ही जीवन काटा!
ऐ भाग्य तुम्हारे खातिर ही
अब तक मेरी आशा जागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!