भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक दिन में आख़िर / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:08, 20 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तेजी ग्रोवर |संग्रह=लो कहा साँबर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक दिन में आख़िर कितनी बार लगना है
यह अन्तिम क्षण है
कितनी बार तुम्हारी आँखें चूमते हुए
कई जन्म कौंध जाने हैं
घास के दो हरे साँप मेरे स्वप्न में लगातार रहते हैं
ये कौन हैं, अस्सू, मेरे बच्चे
मेरे झोले की जेब से मुण्डी निकाल वे क्या माँगते हैं
यह कौन है, मेरी माँ, जो इस समय मुझसे प्रेम कर रहा है
देह की कामना करते हुए
दुख क्यों आ रहा है बार-बार हमारे पास
मैं इतना बोल क्यों रही हूँ