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सफ़र के अन्धेरे / जयप्रकाश त्रिपाठी

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हुई शाम मेरी सवेरे-सवेरे।
कोई क्यों नहीं चल रहा साथ मेरे।

चला था जहाँ से, वहीं का वहीं हूँ,
अकेले-अकेले मैं हूँ भी, नहीं हूँ,
स्वयं इस तरह क्यों कहीं-का-कहीं हूँ
मैं कितना गलत हूँ, मैं कितना सही हूँ
सताते बहुत हैं सफ़र के अन्धेरे।

किया जिन्दगी भर धुनाई-बुनाई,
कटाई-छँटाई, सिलाई-कढ़ाई,
फटे-चीथड़ों से सुई की सगाई,
मरम्मत कोई भी नहीं काम आई,
लगाता रहा निर्वसन वक़्त फेरे।

उगाएँ जो जंगल हमारे वतन में,
सगे हैं वे सबसे सियासी चलन में,
जगाते रहे खौफ़ जन-गण के मन में
चमकदार मणि नागराजों के फन में
थिरकती रहीं नागिनें मरघटों पर,
बजाते रहे बीन बूढ़े सँपेरे।