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आह से उपजा गान / जयप्रकाश त्रिपाठी

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मेरा दुख लाखो में एक है, किन्तु क्यों कहूँ!
सहने दो, सहने दो और इसे, क्यों नहीं सहूँ!

निर्दयता से छीना, जो न पास अब,
तुमने जो दिया, ले लिया वह सब,
रहना था केवल वश में तेरे, अब कहाँ रहूँ!

वे सब दुनिया भर से सुन्दर थे,
देखे जो भी सपने ख़ुशियों के,
एक-एक कर ढह गए वे, किन्तु मैं क्यों ढहूँ!

मुझे क्या पता, गहरा छल होगी,
समझा था यह धारा निर्मल होगी,
बहते-बहते आ गया कहाँ, और क्यों बहूँ!