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गीले पेड़ / नीलोत्पल

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शायद मुझे सभी ग़लत कहेंगे
लेकिन कोई नहीं जानता
जीवन की काली गुफ़ाओं में
कितना अन्धेरा था जब मैंने प्रवेश किया
मैंने एक पत्थर पर हाथ रखा
और उस पर अपना सन्तुलन नहीं रख पाई
वह पत्थर तैरता था, मैं नहीं
मेरे हाथों की रेखाएँ गिर गई
और किताबों और लोगों के
अनगिनत संग भी छूट गए मुझसे

मैं नहीं जान पाई ख़ालीपन के विशाल बोगदे में
कैसे मैंने कुछ तय कर लिया
यह सब जैसे होना था
मैं तो सिर्फ़
बादलों के अश्वेत रंगों में छिपा रही थी
अपने पैरों की महावर
जिसे मैंने ख़ुद ही रच लिया
आपत्तियाँ थी

मैंने भी सोचा अन्धेरे में खड़ी ट्रेन में चढ़ने से पहले
पैर उठते ही नहीं
जैसे किसी ने पहाड़ के अन्तिम सिरे पर खड़ा कर दिया हो
मेरे लिए सोचना नामुमकिन था उस वक़्त
आख़िर मैं हारी भी तो किससे
अपने अजन्में प्यार से
मैंने क़दम बढाए
आख़िर जिन पर मेरा वश नहीं था

मेरा इरादा बजते हुए संगीत में
घुल जाने का है, एक हो जाने का है

मैं चाहती थी बस
गीले पेड़
जिनसे बारिश की जमी बून्दें गिरती रहें
और उनसे गुज़रते हुए मैं भीगती रहूँ
जीवनपर्यन्त