भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसे तो नहीं जाने दूँगा / रुस्तम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:55, 26 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(अपने चचा के लिए)

सौ मील से आए हो
साइकिल पर।
चचा! ऐसे तो नहीं जाने दूँगा!

सौ मील से आए हो
साइकिल पर।
यह तुमने
कब सीख ली साइकिल? —
दादी कहती थी
तुम्हारी अक़्ल मोटी है।

सौ मील से आए हो।
क्या हाल हैं साइकिल के?
ठीक तो है हैण्डल?
गद्दी कोमल है?

दादा चला गया घोड़ी पर।
तुमने सीख ली साइकिल।
सौ मील से आए हो
पैडल

                              घुमाकर —
 
चचा! ऐसे तो नहीं जाने दूँगा!