भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समुद्र - 3 / रुस्तम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:15, 26 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
फिर एक दिन समुद्र कुछ भी नहीं था। तुमने उसे छुआ और
वह समुद्र में बदल गया। एक और दिन तुमने उसे फिर
छुआ। वह आग की तरह भभक पड़ा। तुम्हारी उँगलियों
पर उसे छूने का निशान था। फिर तुमने उस निशान को
भी छुआ। और समुद्र तुम्हारी उँगलियों में चला आया।