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म लहरा भएँ / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा

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अहा ! म लहरा भएँ मनहरा हरा भू जरा
चुसी रस फुलाउँथे कुसुम वासका सुन्दर,
रमी हृदय आउँथे चिरबिराउँदा स्वर्चरा,
स्वदेश रस बन्न गो तर कवित्व यो वर्वर !