भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक हंगामा सा बपा देखा / नक़्श लायलपुरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:31, 4 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नक़्श लायलपुरी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक हंगामा सा बपा देखा।
क्या कहें शहरे-जाँ में क्या देखा।

ज़ख़्मे-दिल आ गया है आँखों तक,
आँसुओं में लहू छुपा देखा।

संगदिल को हमारी याद आई,
फूल चट्टान पर खिला देखा।

नींद टूटी तो फिर नहीं आई,
क्या बताएँ कि ख़्वाब क्या देखा !

मौत ने कर दीं मुश्किलें आसाँ,
बद्‍दुआ बन गई दुआ देखा !

कौन था इन्तिज़ार किसका था,
उम्रभर हमने रास्ता देखा।

जाने चेहरे पे क्या नज़र आया,
’नक़्श’ ने फिर न आइना देखा।