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सुगना मुण्डा की बेटी-3 / अनुज लुगुन

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सुगना मुण्डा की बेटी

साल के लम्बे-लम्बे पेड़ों को
अपने में समेटने की कोशिश करती
बंदई की अमावस्या
गहन अँधेरा और दीपकों का उत्सव भी
गुलामी की साजिश और मुक्ति की तैयारी भी,
और पास ही एक छोटी झोपड़ी से
प्रतिपक्ष में खड़े दीये की मद्धिम रोशनी
साल के पेड़ों की पहचान बचा रही है
साथ ही उससे उभर रही है
झोपड़ी के अंदर एक बूढ़े की पहचानµ
जिसके गले में एक गमछी टँगी है,
घुटनों तक सफेद धोती लिपटी है
उसके हाथ में बाँस की चमकती हुई छड़ी है
वह डोडे वैद्य है,
वैद्य की उपस्थिति
वहाँ अन्य सात जनों की पहचान बना रही है
‘तीन युवक और चार युवतियाँ’
और उन तक मद्धिम आवाज में
गाँव के किसी कोने से बंदई का गीत पहुँचता है
‘लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर...रे
हमारे खेत, हमारी खेती के साथी
लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर...रे
तुम्हारे लिए दीये हैं, तुम्हारे लिए बाती
लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर...रे
सब कुछ बचा रहे, सब कुछ बना रहे
लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर...रे
हिसिंगा से परे, डाह से परे’
डोडे वैद्य के सामने गोबर लिपी जमीन पर
कुछ दोने हैं, दोनों में अरवा चावल हैं
धुअन है, हँड़िया है
वह संवाद की मुद्रा में कहता हैµ
‘गुड़ी की अंतिम परीक्षा का दिन है यह
फिर से आज कहूँगा कि
यह साँप पकड़ने या जकड़ने का
जादू-टोना नहीं है
और न ही हम ऐसे ढोंगी विद्या के समर्थक हैं
यह आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान
ध् 137
गंध और गीतों का समुच्चय है
मूल ‘होड़ो-पैथी’ है यह
जीवों के बाह्य और आंतरिक
विशेषताओं और विसंगतियों का ज्ञान
और इसके सूत्राधार होते हैं मंतर,
‘‘ये मंतर केवल शब्द नहीं हैं
केवल ध्वनि मात्रा नहीं हैं
और न ही यह मेरी रचना है
जिसे मैं अपनी अमरता के लिए
तुम्हारी स्मृतियों का स्तंभ खड़ा कर रहा हूँ
यह किसी ओझा का झूठ या, अन्धविश्वास नहीं है
यह उन सबका सार है
निचोड़ है, रस है
जो हमारे आसपास के जीवन में
दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले मौजूद है,
इस धरती में जीवन के तन्तु
एक-दूसरे प्राणियों से ही बुने हैं
हम अपने जीवन के लिए सबके आभारी हैं
प्रकृति में कोई भी किसी के बिना अधूरा है
उसकी पहचान अधूरी है
संपूर्ण जीवन में हम अपने सहजीवियों से
प्रत्यक्ष संवाद नहीं कर पाते हैं
यह मंतर उनसे संवाद का माध्यम है
यह मंतर है, अलिखित, अ-रूढ़ और स्व-अभिव्यक्ति’’
जोनाµ(शिष्या)
‘‘एक तरफ हम यहाँ
जीवन बचाने के लिए परीक्षा में उतरे हैं
दूसरी तरफ अमानवीय शक्तियाँ भी हैं
जो आज की रात तैयारी में हैं
अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए
कहा जाता है
आज चुड़ैलें नाचती हैं अँधेरी रात में
डायन-सभा होती है
जो अपनी देह में जलते हुए दिये को लेकर नृत्य करती हैं
आदमखोर कहीं अपने दाँत तेज कर रहे होंगे’’
138 ध्
सेः को (शिष्य)µ
‘‘अगर हमारे मंतर की शक्ति है तो
उनके मंतर की भी शक्ति होगी ही
तो क्या यह शक्तियों की टकराहट होगी...?
क्या यह द्वंद्व है
अपनी-अपनी शक्ति स्थापना का...?’’
डोडे वैद्यµ
‘‘एक तरफ हम हैं
जो जीवन बचाने के लिए खुद को समर्पित कर रहे हैं
और दूसरी तरफ अमानवीयता की भी तैयारी है
गौर करने की बात है कि
हर शक्ति मानवीयता के नाम पर ही उभरती है,
हमारी तैयारी शक्ति स्थापित करने की नहीं है
बल्कि अमानवीय शक्तियों को
जीवन के केन्द्र में आने से रोकने की है’’
जितनी (शिष्या)µ
‘‘तो फिर यह द्वंद्व है, लड़ाई है
लेकिन हमें तो सबकी सेवा के लिए तत्पर होना है
हमारे लिए क्या शत्राु, क्या दोस्त
सब मरीज हैं दुखी जन हैं?’’
डोडे वैद्यµ
‘‘हाँ, हमें सबकी सेवा करनी है
हम वैद्य होंगे, रोग निवारक होंगे,
हमारा कोई शत्राु नहीं है
हमारा शत्राु सिर्फ रोग है, बीमारी है
और यह रोग विचार भी है, सोच भी है
एक व्यवस्था भी रोग होता है
हमें सबसे पहले रोग की पहचान करनी होगी’’
बिरसी (शिष्या)µ
‘‘रोगी कौन है
रोग कैसे होता है
चुड़ैल रोग फैलाती हैं
या डायन रोग फैलाती हैं
ध् 139
हमें इन बातों में विश्वास नहीं होता है
यह ओझाओं का ढोंग है
अपने लिए मुर्गा और बकरा जुगाड़ने का धन्धा है
इनके मंतर और झाड़-फूँक कष्टदायी होते हैं’’
डोडे वैद्य-
‘‘हाँ, बिरसी!
चुड़ैल और डायन लोगों की कल्पना हैं
यह भी सत्ता के वर्चस्व का साधन है
उत्पीड़न का कारक
संपत्ति लालसा का प्रतिबिंब
यह संकेत है
आदिवासी दुनिया में
सत्ताओं के उदय का
पुरखों के गणतंत्रा के खिलाफ प्रभुता का,
यह संकेत है
आमानवीय शक्तियों के गठबंधन का,
चानर-बानर के शुक्राणु
उलट्बग्घा के शुक्राणु यहीं से जन्म लेते हैं
यहीं अभिक्रिया होती है आदमी और बाघ की
जो सबसे ज्यादा भयावह और अप्राकृतिक होता है’’
बिरसीµ
‘‘हाँ, मैंने सपने में देखा था
रीडा आबा मुझे उसी तरह के बाघ की बात बता रहे थे
उन्होंने कहा था
कि आपसे हमें और भी ज्ञान मिलेगा
उन्होंने ही कहा था
आदमी ही बाघ बनते हैं’’
डोडे वैद्यµ
‘‘हाँ, बिरसी
प्राकृतिक रोग का इलाज सहज है
मनुष्य निर्मित रोग का इलाज कठिन है
उसका रोग
उसकी व्यवस्था के रूप में प्रतिबिंबित होता है,
हमारे अन्दर रोग
140 ध्
केवल प्राकृतिक नहीं है
कई बार हमारे मुंडाओं, मानकियों और
पहान जैसे पदधारियों ने भी
अप्राकृत बाघों के साथ अभिक्रिया कर
मदरा मुण्डा और हीरा राजा के गणतंत्रा के विरुद्ध आचरण किया है
और एक ही गण के अंदर
एक मुण्डा के यहाँ अलग व्यवस्था दिख जाती है
दूसरे मुण्डा के यहाँ अलग
हमने उसे एक रोग के रूप में चिद्दित किया है’’
जोनाµ
‘‘रिसा मुण्डा और मदरा मुण्डा के
गणतंत्रा के विरुद्ध
हमारे ही परवर्ती कुछ मुण्डाओं ने भी आचरण किया है
यानी, गणतंत्रा के विरुद्ध आचरण भी बाघपन है...?
बीमारी है, रोग है?’’
डोडेµ
‘‘हाँ, लेकिन रोग या रोगी की पहचान
केवल उसके बाहरी लक्षण से ही
संभव नहीं है
गणतंत्रा यदि एक आवरण मात्रा है
और उसके अंदर उसके अस्थि-मज्जों का अभाव है
तो वह धोखा है ढोंग है
हमारे पुरखों ने अपने अस्थि-मज्जों से उसकी संरचना की है
लेकिन हमारे ही मुण्डाओं ने
हमारे ही प्रतिनिधियों ने
उसको खोखला कर
आवरण मात्रा रहने दिया है,
हमारे गणतन्त्रा के आधार गीत हैं
गीत ही मंतर है
रोग निवारक प्रमुख औषधि हैं
गीतों का Ðास गणतंत्रा का Ðास है
गीत रहित गणतन्त्रा प्रभुओं की व्यवस्था है
प्रभुताओं के खिलाफ
मैं तुम्हें मंतर दूँगा, गीत सौंपूँगा
वही होगा रोगों से मुक्ति का आधार,
ध् 141
यह गीत, यह मंतर
रोग के कारण से
संवाद का एक माध्यम है
ठीक वैसे ही जैसे
पेड़ से गिरे मरीज को
जड़ी-बूटी देने से पहले
उस पेड़ से संवाद स्थापित करते हैं कि
वह हमें क्षमा करे हमारी अमर्यादा के लिए
यह मंतर गीत है, स्वछंद है
दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले प्रकृति का
संवाद है अपने सभी सहजीवियों से’’
सहमति में सात जनों के सिर
अपनी-अपनी स्वाभाविक मुद्राओं में हिले
वे अपनी मुद्राओं को स्वर देते हैंµ
‘हाँ, हमें संवाद के
सभी तरीकों से अवगत होना है
संवाद के बिना
गीतों के बिना
हम कोई ठोस व्यवस्था नहीं बना सकते’
एक गहन शांति के बाद
डोडे वैद्य ने फिर कहाµ
‘‘सुनो!
आज बंदई की अमावस्या हैµ
‘गुलामी की साजिश
और मुक्ति की योजना भी है’
आज का त्योहार
हमारे सहजीवियों के लिए है
मवेशियों के लिए है
यह उनकी सेवा का अवसर है
उनसे संवाद को प्रगाढ़ करना है’’
सात जनों में से
एक की प्रश्नवाचक मुद्रा उभरीµ
‘‘यह संवाद
कैसे प्रगाढ़ होता है?’’
142 ध्
डोडेµ
‘‘संवाद की प्रक्रिया होती है
उस प्रक्रिया से गुजरे बिना
हमें अजनबीपन का बोध होता है
हमने अपने सहजीवियों के
सम्मान में उपवास किया
ताकि वे हमारी आँखों से ही
समझ सकें हमारी भावना
और उनकी भावना में
उतर आये अस्पर्श नमी
हमने उन्हें नहलाया
कुजरी तेल से तेलाया
उड़द, चावल नमक की टीप दी
उन्हें धन्यवाद कहा कि
उन्होंने हर बार की भाँति
इस बार भी हमारी खेती संपन्न की
वे हमारे बच्चों की आँखों की हँसी हैं
हमारे पुरखों की शांति के कारक
हमने उन्हें हँड़िया, सिंदूर अर्पित किया
हमने उनके पुरखों को स्मरण किया कि
उन्होंने ही हमें घने जंगलों के बीच
जीवन का सहारा दिया
वे हमारे गणचिह्न हैं, हमारे रक्षक,
हमने स्मरण किया ‘टूंटा साईल काचा बियर’ को
कि उन्होंने आदिम दिनों में
हमारे जीवन का जोखिम भरा रास्ता साफ’ किया
फिर पूरे गाँव के सहजीवियों को
अखड़ा में एकत्रित किया
और उनके साथ मांदर, नगाड़े, गीत साझा किएµ
‘हिर रे, हिर रे, तोतो नोनो
हिर रे, हिर रे, तोतो नोनो
आज तुमसे काम नहीं लेंगे
आज तुम्हारी सेवा करेंगे
तुम्हारी इच्छाशक्ति से ही
तुम्हारे लगन से ही
इस जीवन को हमने सँवारा
इस देश को हमने सोना बनाया
ध् 143
हिर रे, हिर रे, घुर रे, हुर्र रे
छगरी रे, गारू रे, काड़ा रे’
(सभी शिष्य सामूहिक स्वर देते हैं।)
फिर और एक मुद्रा प्रश्नवाचक हुईµ
‘‘गीत क्यों जरूरी होते हैं?’’
बिरसीµ
‘‘संवाद और सम्मान के लिए’’
डोडेµ
‘‘संवाद और सम्मान
सहजीविता के लिए अनिवार्य शर्त है
जंगलों से, नदियों से
पेड़ों से, जुगनुओं से, तितलियों से
दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले प्रकृति से
विश्व कल्याण के लिए,
संपूर्ण जीवन की लय और
श्रम के लय की एका से ही
सहजीविता संभव होती है
श्रम का शोषण
इस लय को तोड़ता है
इसी लय को गूँथते हैं गीत
गीत ही हमारे मंतर हैं
यह कोई आदेश नहीं है
कोई फतवा नहीं है
स्त्राी-पुरुष, बच्चे-बूढ़े
इसके सब समान अधिकारी हैं
वंचित जनों का प्राण है यह’’
जितनीµ
‘‘गीत हमारे रोग निवारण की
औषधि है
इस औषधि की जड़ अखड़ा है
अवसाद की जड़ी, अकेलेपन की बूटी...?’’
144 ध्
डोडेµ
‘‘हाँ, यह रोग निवारण की औषधि है
इस औषधि की जड़ केवल अखड़ा नहीं रही है
हमारा संपूर्ण गणतंत्रा इसकी जड़ी है
गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल
पड़हा, पंचायत, सरना, मदाईत,
इसके मजबूत खूँटे हैं
जिसने हमारी दुनिया को चट्टान की तरह बाँधे रखा
श्रम के शोषण का प्रतिपक्ष
और सत्ताओं के लिए कड़वा घूँट
जबजब गीत टूटे हैं
सत्ताओं के विषाणु पनपे हैं।’’
रुसू (शिष्य)µ
‘यह हमारी प्रकृति में ही मौजूद है
उसी में हैं इसके तंतु’
डोडेµ
‘‘हाँ, मूल तो प्रकृति ही है
वर्तमान दंभी विज्ञान का उत्स भी
सभी उत्पादित वस्तुओं का सोता भी,
आह...लेकिन उसी प्रकृति का आज इतना अपमान है!
जड़ें, छाल, पत्ते, फल, पत्थर, बीज, लतर
सभी जीवन के औषधि हैं
प्रकृति अंगी है, हम अंग हैं
उसका ही सम्मान हमारा धर्म है
उसकी रक्षा हमारा कर्त्तव्य
यही है आदिवासियत का आधार
और यही आधार है संपूर्ण सृष्टि के जीवन का,