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रासायनिक रात / दिलीप चित्रे / तुषार धवल

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रासायनिक रात : मैं पुल की पीठ पर;
चमकती है रोशनी की लड़ियाँ अन्धेरे से
अलकतरे सो चुके हैं ख़ामोश; फुटपाथ कठोर
अब इक्का-दुक्का क़दमों के लिए।

उमस में डूबा अन्तर्बाह्य।
गाँठ लगाई हुई नारियल की रस्सियाँ
भावनाओं पर पड़ती राशिचक्रों की मरोड़
और आकाश में जगह-जगह टूटे मेघ
देखता चलता हूँ तुच्छ कणों पर कष्ट में मैं

और एक ईरानी रेस्त्राँ। पानी पर
उजले प्रकाश का हिलता बिल्लौर...
इच्छाओं के ताश पीस कर मैं उठाता हूँ एक पत्ता
उस बिल्लौरी चौक पर, वह भी चिड़ी

अन्धेरे के स्फटिक गिरते हैं; रासायनिक
रात्रि के प्रकाश से। उनका नमक और नौसादर
मैं हीरे की तरह सम्भालता हूँ और भीतर उतरता हूँ
पहले छहों आईनों के आर-पार मेरी आँखों के कौन।

अँग्रेज़ी से अनुवाद — तुषार धवल