पुस्तक / कैलाश पण्डा

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पुस्तक तुम
जीवन की गहराइयों को
शब्दों के माध्यम से
आत्मसात् कर्
संजोये रखती हो
सजने संवरने के लिए
कवि की लेखनी के माध्यम से
तराशी जाती रही हो
छंद अलंकारादि से
सुसज्जित हो
एक दुल्हन की तरह
स्वीकारी जाती रही हो
जब तुम बोलती हो
परकाया प्रवेश कर
तब नये विचार को
नये अनुभव के साथ
जन्म देती रही हो
कहने को कागज के पृष्ठ हो
पारखी जानता है
कितनी पुष्ट हो
पन्ने पलटते हैं जब
कुछ नया घटता है
समाज बदलता हो या नहीं
किन्तु पाठक संभलता है
भीड़ में भटके कुछ लोग
लिख देते हैं काला अध्याय,
अहम् के पूजारी
मिटा देना चाहते हैं
सत् को
किन्तु वह मरता नहीं
मौका पाकर
अमर बेल की तरह
सूख कर भी
वर्षाती मौसम में फूटता है
और तुम्हारे अस्तित्व को
बनाये रखता है।

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