क्या बता सकता हूं मैं
प्रेम के बारे में
कि मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है
सिवा मेरी आँखों की चमक के
जो जून की इन शामों में
आकाश के सबसे ज़्यादा चमकते
दो नक्षत्रों को देख
और भी बढ़ जाती है
हुसैन सागर का मलिन जल
जिन सितारों को
बार-बार डुबो देना चाहता है
पर जो निकल आते हैं निष्कलुष हर बार
अपने क्षितिज पर
क्या बताऊ मैं प्रेम के बारे में
या कि
उसकी निरंतरता के बारे में
कि उसे पाना या खोना नहीं था मुझे
सुबहों और शामों की तरह
रोज़-ब-रोज़ चाहिए थी मुझे उसकी संगत
और वह है
जाती और आती ठंडी-गर्म साँसों की तरह
कि इन साँसों का रूकना
क्यों चाहूंगा मैं
क्यों चाहूंगा मैं
कि मेरे ये जीते-जागते अनुभव
स्मृतियों की जकड़न में बदल दम तोड़ दें
और मैं उस फासिल को
प्यार के नाम से सरे बाज़ार कर दूँ
आखिर क्यूँ चाहूँ मैं
कि मेरा सहज भोलापन
एक तमाशाई दांव-पेंच का मोहताज हो जाए
और मैं अपना अक्स
लोगों की निगाहों में नहीं
संगदिल आइने में देखूँ।