अनुपमा / कुमार मुकुल
मैं जब भी उसकी आँखों में देखता
मेरे बालों में फिरते उसके हाथ मेरी आँखें
ढक लेते
मैं अपने हाथ उसकी हथेली पर रख देता
और मेरा देखना जारी रहता
इसी तरह मैं सपनों की दुनिया में चला जाता
और फिर गहरी नींद में
और जगता तो लगता कि जैसे सुबह हुई हो
धीरे-धीरे मैं अपनी आँखें खोलता
तो देखता वह पास बैठी है और उसकी
आँखों से
शीतल प्रकाश वैसा ही झर रहा है
जिसकी स्निग्धता में डूबी दोपहरी
सुबह में बदल रही है
इसी तरह शाम हो जाती फिर रात व सुबह
अब वह कहीं भी होती
स्निग्धता की लहर में मैं डूबा रहता
लॉन में हम चार-पांच जन टहलते रहते
कोई बात निकलती
सब समझते कि बात क्या है इससे पहले ही
वह हँसती हुई
मुझ पर दोहरी हो जाती
मेरे अहम का प्रस्तर कवच धसकता हुआ
उसके आवेगों का वस्त्र बन जाता
मेरी अस्थिमज्जा में स्नेह का द्रव सुरसुराने
लगता
और अपनी एक बाँह से मैं उसे थम लेता
वह क्या अनुभव करती थी
इसे कौन जान सकता है
अक्सर हम बहुत पास होते
कभी-कभी मैं उसका हाथ चूमने की
कोशिश करता
पर चूमते-चूमते रह जाता
वह कितने पास थी
उसका हाथ जैसे मेरा ही हाथ था
लगता
अपना हाथ भी क्या चूमा जाता है
एक बार उसने पूछा मैं मर जाऊँ
तो आप क्या करेंगे
तुम्हारे बनाए गुलाबों को देख जिऊंगा -
बोलते हुए लगा - उसके बनाए गुलाब
और वह
अपनी रचनाओं में और प्रतिकृतियों में
कितना आ पाता है आदमी
कितना है मेरा बेटा सामने लटकी तस्वीर में
क्या उससे बाहर आकर
मेरे कान उमेठ सकता है वह
या मेरी गरदन दबाते हुए
मेरी निकलती जीभ को देख
और घुरघुराहट को सुन खुश हो सकता है
अपने जीते-जागते बन्दों में कितना है ईश्वर
और बन्दों में ही जब नहीं आ पाता है वह
तो बन्दों की बनाई मूर्तियां में
कितना आ पाता होगा ?
यह सब सोचता घबरा गया मैं
मैंने पूछा - मानिनी
तैंतीस की इस उमर में
बाल तो मेरे सफेद हो चुके हैं
मरने की मेरी गुंजाइश ज़्यादा है
इस पर घबरा गई वह
मेरा हाथ दबाते बोली
नहीं, आप नहीं मर सकते -
नहीं मर सकते आप
मैं हँसा-- कैसे मर सकता हँ मैं भला -
वह जब पड़ोस में निकलती
तो बेला के फूल ले आती
आपको पसंद हैं ना - पर तुमसे ज़्यादा नहीं
नहीं, भागती नहीं थी वह शरमाकर
शरमाती तो थी ही नहीं वह
(अपने आप से शरमाना, कितना बड़ा धोखा है -बोलती वह)
बल्कि पास ही बैठ जाती दुखी-सी
अपनी कामनाओं के लिए तब ख़ुद को
प्रताडि़त करता मैं
और फूलों को छुपा देता क़िताबों में
जैसे उसे ही छुपा रहा होऊँ
पर सुबह देखता तो वह वहाँ नहीं होती
फूल-भद्दे, काले पड़ गए होते
और अपनी करनी पर
मैं पछता रहा होता
वह जब भी बरतन मांज रही होती
उसकी पीठ मेरी ओर होती
मैं जानता था, उसकी आँखें
अभी पीठ में उगी हैं
उसके हाथ बरतन को
विचित्र तरीके से घिस रहे होते
जैसे उस गंदले जल में
मेरा चेहरा आ-जा रहा हो
तब मैं राय देता कि ऐसा करो
कुछ पत्तलें और काग़ज़ की प्लेटें
मंगवा लिया करो
ब्याह का घर है,
काम बढ़ जाता है कितना ?
फिर तो तमक जाती वह
जाइए यहाँ से -
चले जाइए एकदम
मैं पानी से भरा जग उठाता
कि लाओ मदद कर दूँ
फिर तो बिफ़र जाती वह - जाते हैं
कि दूँ पोत
फिर अपना चेहरा उठाए मैं बाहर आ जाता
और देखता
दो मिनट में काम निबटाकर
वह बाहर आ गई है
और उसकी पलकें भीगी हैं
मैं पूछता, रो रही है क्या मानिनी ?
और हँस देती वह झन्न से -
और मैं भाग खड़ा होता - आखिर पकड़ाता
और वह गले से लगी हाँफ रही होती
उससे मेरा रिश्ता ही मज़ाक का थ
पर मज़ाक वह कम ही करती थी
वह भी रिश्ते को निबाहने की मज़बूरी में
जैसे, लोग क्या कहेंगे ?
पर हर मज़ाक के बाद
वह दुखी हो जाती
मैं उसे झूठ-मूठ का डराता और वह
वास्तव में डर जाती
और कहीं छिप जाती
फिर मैं भी उसे इस तरह खोजता
कि वह नहीं ही मिलती
तब वह सामने आकर बैठ जाती
मैं सोचता, अब तो पकड़ी गई -
पर हैरान रह जाता - कि अपने पाँव -
उसने किस तरह
अपनी आँखों में छुपा रखे हैं
मैं हार जाता और कहता
कि अबरी माफ़ किया
एक दिन मौसी ने कहा
कि बहुत मज़बूत है मानिनी
पंजा लड़ाने में अपने भाइयों को भी
हरा देती है
मैंने भी पंजा लड़ाया और हार गया
और ख़ूब ढिंढोरा पीटा - कि मैं तो हार गया
पर वह दुखी हो गई कि ऐसी जीत
उसे पसंद नहीं
मेरे ज्ञान पर वह अक्सर
आश्चर्य व्यक्त करती
और पूछती -
फिर आप ऐसी मूर्खताएँ क्यों करते हैं !
जैसे कि मझे अनुपमा कहते हैं -
या ऐसी ही फालतू बातें
मैं बोलता कि मानिनी लाओ मैं तेरे बाल
गँथ दूँ
और उसे गौरी फिल्म की याद दिलाता -
वह चिढ़ जाती -
मुझे अंधी समझ रखा है क्या ?
लाइए अपना सिर -इधर -
और अपनी आँखें बन्द कीजिए
......................
.......................
........................
पाँच वर्षों बाद मिले हम
हमारी कोशिश रहती कि हम पास रहें
पर जब वह पास आती
तो मैं कहीं खो जाता
वह टोकती
मुझे बिठाकर ख़ुद -
मैं अकचकाता-- अरे हाँ -
मैं तो वर्षों से उससे मिलना
बातें करना चाहता था
ढेर सी
फिर मैं कहाँ खो गया -
वह उसकी
प्रतिकृति तो नहीं
जो स्मृतियों में रहते-रहते
ऐसी जीवित हो गई है
कि उसकी सजीव
उपस्थिति में भी
मेरा ध्यान खींच ले रही है -
तो क्या यही रचना है - सच्ची रचना
क्या इसी तरह आदमी ने रचा होगा ईश्वर को भी
अपने मूल से भी सच्चे व खरे रूप में
- तो क्या मानिनी
केवल अपने माता-पिता की प्रतिकृति है
और उसका जीवन उसके समय की रचना है
जिसमें प्रकृति है और मैं हूँ
और मेरे जैसे कितने ही रचनाकार हैं
- तो क्या माता-पिता की मानिनी
वह नहीं है
जो अपने सहेलियों की है
या जो अपने भाइयों की है
वह मानिनी मेरी नहीं है
क्या मेरी मानिनी मेरी आकांक्षाओं का स्वरूप है
या उसमें मानिनी की भी
आकांक्षाएँ हैं
और यही उसे
दूसरों की मानिनी से अलग करते हैं।