Last modified on 10 जनवरी 2018, at 10:51

कविता की आत्महत्या / कुमार मुकुल

Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:51, 10 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=सभ्‍यता और जी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

{{KKCatK​​ avita}}

कितनी भया​​नक होती है
कविता की आत्महत्या
मौतें होती हैं
जैसे जलती भट्टी में कुछ कोयले काले पड़ जाएं
पर कविता की मौत
मानो भट्टी ठंडी पड़ गई हो
आग बुझ गई हो
कितना खतरनाक है आग का बुझ जाना
आग जिसे जलाया था
पुरखों ने पत्थर घिस घिसकर
पीढ़ियों ने जिसे जलाए रखा श्रम से जतन से।

गोरख पांडेय के प्रति