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यह कैसा अस्तित्व? / कविता भट्ट
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स्वप्निल निशा सोती आँखें
देख रही थी सोच रही थी मैं
कुछ गतिशील होता जीवन मेरा भी
परिभाषित होता नाम मेरा भी
किनारे लुढ़कते पत्थरों को ठोकरें मारती
दिख गया मन्दिर एक तभी
चढ़ी सीढ़ियाँ पार की
भटकती रही बड़ी देर यूँ ही
अँधियारी सी एक मूरत दिखी तभी
किंतु यह क्या?
मूरत एकांकी, खण्डित और अधूरी
सम्भवतः नर के साथ नहीं थी नारी
शंकर के साथ नहीं थी शक्ति या गौरी
बस सभी पूज रहे थे मात्र ‘गौरी-शंकर‘
गौरी पहले पीछे शंकर
पर यह क्या मूरत तो बस शिव की
तो फिर प्रश्न उठा मेरे मन में कि
यह कैसा अस्तित्व गौरी का?
तो फिर क्या हो सकता था
मुझ सी साधारण नारी का