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बहुत हो चुका / कविता भट्ट

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रात का रोना तो बहुत हो चुका ,
नई भोर की नई रीत लिखें अब।

नहीं ला सकता है समय बुढ़ापा ,
युगल पृष्ठों पर हम गीत लिखें अब ।

नहीं हों आँसू हों नहीं सिसकियाँ,
प्रेम-शृंगार और प्रीत लिखें अब।

दु:ख- संघर्षों से हार न माने ,
वही भावाक्षर मन मीत लिखें अब।

समय जिसे कभी बुझा नहीं पाए
हम वह जिजीविषा पुनीत लिखें अब

कभी हार न जाना ठोकर खाकर,
पग-पग पर वही उद्गीत लिखें अब।

काल -गति से कभी बाधित न होंगे
आज कुछ इसके विपरीत लिखें अब।

यही समय हमारा नाम लिखेगा ,
सोपानों पर नई जीत लिखें अब।