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मुक्तक / अर्पित 'अदब'

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तुम सा आकुल हम सा बेकल दुनिया में क्या है कोई
उसकी ज़ुल्फ़ों जैसा बादल दुनिया में क्या है कोई
अपनी-अपनी सब की हस्ती अपना-अपना सूनापन
तुम सा घायल हम सा पागल दुनिया में क्या है कोई

जिसे हो स्वर्ग की इच्छा वो चारों धाम तक जाए
बिरज में श्याम से लेकर अवध में राम तक जाए
हमें तो बस तमन्ना है की इस संसार का प्राणी
तुम्हारे नाम से होकर हमारे नाम तक जाए

इतने वर्षों में जो कुछ भी बीत गया वो आना है
तुम से वापस नही मिलेंगें ऐसा भी कब ठाना है
सारी दुनिया रूठी हम से हम दुनिया से रूठे हैं
तुम से भी रूठे हैं लेकिन ये हम ने अब माना है

जानबूझकर कह लो या फिर समझो की नादानी में
या रिश्तों की कहासुनी में रस्मों की मनमानी में
मैं भी कब से हाथ घुमाए फ़ेंक रहा हूँ इधर उधर
कब से ढूंढ रही हो तुम भी वही अंगूठी पानी मे

न तो उसके रहे खुद को भी हासिल हो नही पाये
वही किस्से वही वादे जो कामिल हो नही पाये
तुम्हें पाने की कोशिश में हुए तुम से मगर फिर हम
कई बरसों तलक खुद में ही शामिल हो नही पाये

फिर से रिश्ते जोड़ रहे हैं फिर से तेज उजाला है
शर्तों वाला हिस्सा अब की उसकी ओर उछाला है
दुनिया देख रही है मुझको हंसता गाता आज मगर
तुम ये देख रही हो मैंने कितना दर्द संभाला है

तुम्हारे खूबसूरत जिस्म के जितना नही समझा
मोहब्बत को अभी हम ने मगर इतना नही समझा
इसी बेकस इसी बेबस जमाने की तरह तुम ने
हमें बेशक बहुत समझा मगर उतना नही समझा

जब घर में तू ही न हो फिर किस मतलब का ये घर है
इन आँखों में सिर्फ मोहब्बत का धुंधला सा मंज़र है
और किसी से नही शिकायत खुद को खुद से शिकवा है
हर शख्स मुझे वो छोड़ गया जो तुझ सा मेरे अंदर है

कुछ टूटी कस्मों की यादें यादों का नज़राना है
उन भीगी आंखों से होकर इन आंखों तक आना है
जितने चेहरे उतनी बातें जितनी खुशियाँ उतने गम
बाहों में जीते आये थे आहों में मर जाना है

कहीं कहीं पर चुप रहते हैं कहीं कहीं कह जाते हैं
तुम से तुम तक सीमित है जो खोते हैं जो पाते हैं
नए मोड़ पर आज भूल से मिले तो बरसों बाद वही
नए पुराने शिकवे हैं और मैं हूँ तुम हो बाते हैं