भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बार-बार क्यों शकुनी फेके / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:21, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} {{KKCatNavgeet}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बार-बार क्यों शकुनी फेके
राहुल! पहला दाँव

सौ करोड़ जब तीन दिनों में
सिनेप्लेक्स में फिल्म कमाती
निर्धनता अनबूझ पहेली
बात तनिक न समझ में आती
समझ न आती बात कि उजले
कौवे करते काँव

मंच काव्य का या नेता का
दोनो की ही एक कहानी
ताल ठोकते, व्यंग्य सुनाते
मरा हुआ आँखों का पानी
भोली-भाली जनता खोजे
कहो कहाँ अब ठाँव

बाँट रहा है भोजन कपड़ा
और कराता मतगनना भी
जनगनना का भार उसी पर
और उसे जीवन गढ़ना भी
ऐसे चाणक्यों से खोजे
मगध आजकल छाँव

रचनाकाल- 15 दिसंबर 2016