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हार गये वन / किशन सरोज
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सैलानी नदिया के सँग–सँग
हार गये वन चलते–चलते
फिर आयीँ पातियाँ गुलाबों की
फिर नींदेँ हो गईं पराई
भूल सही, पर कब तक कौन करे
अपनी ही देह से लड़ाई
साधा जब जूही ने पुष्प-बान
थम गया पवन चलते–चलते
राजपुरूष हो या हो वैरागी
सबके मन कोई कस्तूरी
मदिरालय हो अथवा हो काशी
हर तीरथ-यात्रा मजबूरी
अपने ही पाँव, गँध अपनी ही
थक गये हिरन चलते–चलते