ढल चुका दिन-रात / चन्द्रेश शेखर
ढल चुका दिन रात अब नवयौवना है
किन्तु चातक सांझ से कुछ अनमना है
चादंनी मधुसेज बनकर बिछ गयी है
और बेला ने भुवन महका दिया है
रातरानी कर रही है नवस्वप्न संचय
और रति ने तन व मन बहका दिया है
चल रही मधुमास की पुरवा मनोरम
दूर नभ में चाँद तारे गा रहे हैं
चातकी मनुहार कर-कर थक चुकी है
व्यर्थ उसके यत्न सारे सारे जा रहे हैं
आज जाने कौन पिय से कह गया है
हर मिलन बिच्छोह की प्रस्तावना है
छिप गयी हैं चंद्रमा की सब कलायें
और सूरज सर पकड़ कर रो रहा है
कर रहा खुलकर कुहासा मत्त नर्तन
शरद रितु का आगमन फिर हो रहा है
आजकल खद्योतगण अवकाश पर हैं
चाँदनी कृशकाय बनवासी हुई
गन्ध बेला की सिमट कर जम गयी
रात रानी सद्य उच्छ्वासी हुई
चातकी सोने का उपक्रम कर रही है
आज चातक से कोई झगड़ा ठना है