भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बड़बड़ाने लगता आदमी / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:36, 26 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा रावत |अनुवादक=जो नदी होती...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सब कुछ ठीक-ठाक
बोलते-बोलते अचानक
बड़बड़ाने लगता आदमी
पागल नहीं।
वो तो इस संसार
के पागलपन को अपनी
आत्मा पर बोझ के समान
न जाने कब से ढो रहा था।
जब वो ये सब कर रहा था
तो रास्ता कठिन था।
अकेला सह नहीं पाया इस बोझ को
ठीक इसी समय छोड़ दिया होगा
सिद्धार्थ ने अपना घर बनने
गौतम बुद्ध
मार्क्स ने ठीक इसी समय
भर दिए होंगे काग़ज़
अपनी स्याही से।
लोगो! अगर अब भी
हमारे अन्दर है कुछ शेष
तो हम बैठें उसके साथ
वो हमें बताएगा अपनी
बोली के मर्म।