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बड़बड़ाने लगता आदमी / प्रज्ञा रावत

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सब कुछ ठीक-ठाक
बोलते-बोलते अचानक
बड़बड़ाने लगता आदमी
पागल नहीं।
वो तो इस संसार
के पागलपन को अपनी
आत्मा पर बोझ के समान
न जाने कब से ढो रहा था।
जब वो ये सब कर रहा था
तो रास्ता कठिन था।
अकेला सह नहीं पाया इस बोझ को
ठीक इसी समय छोड़ दिया होगा
सिद्धार्थ ने अपना घर बनने
गौतम बुद्ध
मार्क्स ने ठीक इसी समय
भर दिए होंगे काग़ज़
अपनी स्याही से।
लोगो! अगर अब भी
हमारे अन्दर है कुछ शेष
तो हम बैठें उसके साथ
वो हमें बताएगा अपनी
बोली के मर्म।