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घर का सपना / प्रज्ञा रावत

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इतने बरस जो सहेजती
और सँवारती रही सिर्फ़ घर
अपने चेहरे से ज़्यादा
घर का चेहरा देखा
आईने में
हर मौसम उतारा
घर के आँगन में
हर सुख-दुःख को करीने से
सजाती रही आलों में
कभी प्रेम में भी डूबी
तो वो घर ही था
फिर भी उससे ही
क्यों छूटा उसका घर।