कौवा फिर से अखरोट की डाली पर
उठाता है सिर व चोंच ऊपर। यूँ
निकाला जाता है स्वर गले में घोट कर, बाहर चीखा जाता है।
मोटरों का शोर गड़गड़ाता है कौवे के स्वर के ऊपर।
छोड़ें घुटना और लिखना। कुछ और
घटना चाहिए! कोई निर्णायक मोड़,
आना था! अनभिप्रेत, हिंसात्मक,
अभिप्रेत और जैसे अपने-आप। नहीं आया कोई
निर्णायक मोड़। जैसे अपने-आप
कट गया, लिखा गया और काटा गया, जब तक
एक एकमात्र लिखा/काटा गया,
एक एकमात्र रेखा है, जो निर्णायक मोड़
की याद दिलाती है, फ़सील के नीचे लगे दलारे की,
जलमार्ग में लगे संकेत-चिह्नों की, कौवों की, काँय-काँय की,
अखरोट के पेड़ की डाली की, गला घुटने की और
लिखने और चीखने की, बहुत हुआ निर्णायक मोड़।
(मूल जर्मन कविता "Endlich die Krähe..." का अनुवाद— अमृत मेहता)