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बर्बरता और ईसा / अदनान कफ़ील दरवेश

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प्रिये !
आज ये हृदय
अति व्याकुल है
'औ सदियों से खड़ी
ये हाड़-माँस की प्रतिमा
जर्जर हो चुकी है
संसृति की इस
बर्बरता से।

प्रिय ! मेरा रक्त
जो शायद अब भी लाल है
रिस रहा है

संभवतः
मुक्ति की अभिलाषा में .
पैबन्द लगे मेरे वस्त्रों से
सड़े माँस की
बू आती है
और नीच भेड़िये
मेरा रक्त पी रहे हैं।
 
क्या
इस दन्तेवाड़ा के दौर में
मेरा अस्तित्व
सम्भव है?

और
कितनी सदियों तक
मैं आहार बनता रहूँगा
इन वहशी दरिन्दों का?

और आख़िर कब तक
मरियम जनती रहेगी
एक नए ईसा को ?

कब तब
कील ठोंके जाएँगे
मेरे इस वजूद में?
कब तक?
आखिर कब तक?

लेकिन शायद
ये इस बात से अनभिज्ञ हैं
कि मेरी
उत्कट जिजीविषा
और मेरे
बाग़ी तेवर
कभी ठण्डे नहीं पड़ सकते

यूँ ही ईसा
पैदा होता रहेगा
चाहे हर बार उसे
सूली पर ही
क्यूँ न चढ़ना पड़े।

(रचनाकाल: 2016)