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आवाज़ / अदनान कफ़ील दरवेश
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मैं तो आवाज़ था,
गूँजता ही रहा,
तुम दबाते रहे ,
हर घड़ी टेटुआ,
तुम सताते रहे ,
पर मिटा न सके,
मैं निकलता रहा ,
इक अमिट स्रोत से,
तेरी हर चोट पे।
तुम कुचलते रहे ,
मैं उभरता रहा,
तुम सितम पे सितम ,
मुझपे ढाते रहे,
लब को सिलते रहे,
अश्क ढलते रहे।
मैं बदलता रहा,
हर घड़ी रूप को,
तुम तो अनपढ़ रहे,
मुझको पढ़ न सके,
मेरी चुप्पी में भी,
एक हुँकार थी,
मुझमें वो आग थी,
जो जला देती है,
नींव ऊँचे महल की,
हिला देती है,
मुझमें वो राग है ,
मुझमें वो साज़ है,
जो जगा देते हैं ,
इक नया हौसला,
और बना देते है,
इक बड़ा क़ाफ़िला,
एक स्वर ही तो हूँ,
देखने में मगर,
पर अजब चीज़ हूँ,
तुम समझ न सके।
(रचनाकाल: 2016)