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खुदा हाफ़िज़ / अदनान कफ़ील दरवेश

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 सब सामान पैक कर लिया मैंने
अब बस सफ़र की तैयारी है
लेकिन मन में एक हूक-सी
उठ रही है
एक चिर-परिचित हूक।

ऐसा लगता है
मानो
ये नीम का पेड़
जिसने मेरा बचपन देखा है
उदास, पथराई आँखों से
अलविदा कह रहा है

ये बूढ़ा पीपल
जो हर मौसम में
हरा रहने की कला
बख़ूबी जानता है
आज, चुप
साकित
खड़ा है

ऐसा लग रहा है
मानो
क़ब्रिस्तान वाले
पोखरे के भूत ने
मेरी कमीज़ के पीछे
भौजाई की तरह
मज़ाक़ में
जैसे
खट्टी-मीठी यादों का
‘लपटा’
चुपके से
चिपका दिया हो
और
मुझ पर ठठा-ठठाकर
हँस रही हो
और मैं
बऊक, बुरबक बना
खड़ा अपना
उपहास देख रहा हूँ

और
पड़ोस की बुढ़िया ‘ईया’
का खण्डहर मकान
मानो उन्हीं की आवाज़ में
सकुशल पहुँचने की दुआ
दे रहा हो
कि –
‘बबुआ ! नीके-नीक चँहु प’

बाहर वाले दालान से
गुज़रने पर यूँ लगता है
जैसे कि
अम्मा पास बुला रहीं हैं
और बुदबुदा रहीं हैं
शायद
‘आयत- अल -कुर्सी’
मुझ पर फूँकने के लिए
और उनके हाथों का स्पर्श
मुझ में एक रोमाँच
भर रहा है।

गाड़ी चल पड़ी
और उसके साथ
उड़ रही
मेरे गाँव कि माटी
मानो
नंग-धड़ँग बच्चों की तरह
पीछे-पीछे
दौड़ लगा रही है
और
खुदा हाफ़िज़ कह रही है

और
इस पूरे दृश्य को मैं
अपनी आँखों में
छिपा लेना चाहता हूँ
न जाने फिर कब
नसीब हो
ये सोंधी ख़ुशबू
ऐ मेरे गाँव, मेरी माटी
खुदा हाफ़िज़।

(रचनाकाल: 2016)