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बदल रहा है गाँव हमारा / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
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नए दौर में नए तरह से
बदल रहा है गाँव हमारा
झाल-चाट को छोड़ सभी अब
पिजा-बरगर लगे हैं खाने
लोकगीत की धुन बिसराई
लगे गूँजने फिल्मी गाने
सेंडिल, बूट पहनने वाला
हुआ आधुनिक पाँव हमारा
छप्पर नहीं बचे हैं और न
गौरैयों का ठोर-ठिकाना
धीरे-धीरे जाल बिछाकर
शहर बुन रहा ताना-बाना
टावर, चिमनी खड़े हो गए
खोया पीपल छाँव हमारा
सूख रहे तुलसी के पौधे
बने सजावट गमले घर में
किट्टी पार्टी की रौनक है
काम बहुत है अब दफ्तर में
जहाँ कभी मिलते थे सब जन
नहीं रहा वह ठाँव हमारा