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चांद-तारे / कुमार मुकुल
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कांसे के हसिए सा
पहली का चांद जब
पश्चिमी फलक पर
भागता दिखता है
तब आकाश का जलता तारा
चलता है राह दिखलाता
दूज को दोनों में पटती है और भी
भाई-बहन से वे साथ चहकते हैं
पर तीज-चौठ को बढ़ती जाती है
चांद की उधार की रौशनी
और तारा
तेजी से दूर भागता
सिमटता जाता है खुद में
आकाश में और भी तारे हैं
जो जलते नहीं टिमटिमाते हैं
पर वे चांद को जरा नहीं लगाते हैं
निर्लज्ज चांद
जब दिन में
सूरज को दिया दिखलाता है
तारों को यह सब जरा नहीं भाता है।