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सूरज पर संक्षिप्त टिप्पणी / मिरास्लाव होलुब / यादवेन्द्र

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मौसमवेत्ताओं के गहन अध्ययन को सलाम
अन्य अनेकानेक लोगों की मेहनत को भी सलाम
कि हम जान पाए कब होते हैं दिन
सबसे लम्बे और सबसे छोटे
हमें देखने को मिले सूर्य ग्रहण
और हर सुबह सूर्योदय।
पर कभी नहीं दिखाई दिया हमें
कैसा होता है असल में असली सूरज।

इसको ऐसे समझें — हम देखते हैं सूरज को
जंगलों के ऊपर पेड़ों के झुरमुट पर
किसी टूटी-फूटी सड़क के उस पार
गाँव के पिछवाड़े डूबते हुए....
पर सच ये कि नहीं देख पाते हम असल सूरज
देखते हैं.... बस सूरज जैसा कुछ....

सूरज जैसा कुछ.... सच पूछें तो
मुश्किल है इसको रोज़-रोज़ झेल पाना...
दरअसल लोगों को तो सूरज दिखता है
पेड़, परछाईं, पहाड़ी, गाँव और सड़कों की मार्फ़त...
यही प्रतीक हैं सूरज के।

सूरज जैसा कुछ दिखता रहता है
जैसे हो कोई मुट्ठी तनी हुई....
समन्दर या रेगिस्तान या हवाई जहाज़ के ऊपर....
मज़ेदार बात है कि न तो ख़ुद इसकी छाया पड़ती है
न ही हिलता टिमटिमाता है कभी
यह इतना अजूबा अनोखा है
कि जैसे हो ही न कहीं कुछ..

बिलकुल सूरज की तरह ही विलक्षण है
सच्चाई भी।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र