भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस तरह आधी रात / सुन्दरचन्द ठाकुर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:30, 30 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुन्दरचन्द ठाकुर |संग्रह=एक बेरोज़गार की कविताएँ / सु...)
इस तरह आधी रात
कभी न बैठा था खुले आंगन में
पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनाई पड़ रहा है
मेरी आंखों में आत्मा तक नींद नहीं
देखता हूं एक टूटा तारा
कहते हैं उसका दिखना मुरादें पूरी करता है
क्या मांगूं इस तारे से
नौकरी!
दुनिया में क्या इस से दुर्लभ कुछ नहीं
मैं पिता के लिये आरोग्य मांगता हूं
मां के लिये सीने में थोड़ी ठंडक
बहनों के लिये मांगता हूं सुखी गृहस्थी
दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा
ओ टूटे तारे
उसे बख़्श देना तू
नौकरी!