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मूल-निवास / नरेन्द्र कठैत

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हमारा पुरखोंन्
अंगूठा छाप होण पर्बि
हमारु जौर-बुखार
छौळ-झप्येटू
खारु घूसी-घूसी
कागज मा मंतरी

पर पौढ़-लेखी
कागज रगड़ी-रगड़ी बि
न हम पर
अक्ल ऐ
न हमुन् तौंकि
क्वी कीमत समझी

अब त बात
इख तक बढ़गि
कि हमारु असली
घर-द्वार खन्द्वार
अर मूल निवास
कागज मा चढ़गी।