भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो दिन / जया झा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 1 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= जया झा }} देखा हमें बेरुखी से कई चैनल बदलते हुए ठंडी सा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखा हमें बेरुखी से कई चैनल बदलते हुए

ठंडी साँस ले कर उन्होंने कहा,

“रविवार की एक फ़िल्म के लिए मचलने वाले,

हाय, वो सीधे दिन गए कहाँ।”


उन्हें जब देखते थे उस फ़िल्म से अकेले चिपके

अपने दिन याद करते थे उनके बुजुर्ग भी

वो बड़ा सा रेडियो, जिसके चारो ओर

पूरे गाँव की भीड़ लगती थी।


और उस रेडियो को भी मिली थी गालियाँ

कि कहाँ पहले लोग यों चिपके रहते थे

क्या दिन थे वो जब शामों में

सब मिलकर बस बातें करते थे।