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दिल्ली में सुबह / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
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सीढि़यों से

गलियों में

उतरा ही था

कि हवा ने गलबहियाँ देते

कहा - इधर नहीं उधर

फिर कई मोड़ मुड़ता सड़क पर आया

तो बाएँ बाजू ख्‍ड़ी प्रागैतिहासिक इमारत ने

अपना बड़ा सा मुँह खोल कहा-- हलो

मैंने भी हाथ हिलाया और आगे बढ़ गया फुटपाथ पर-

दाएँ सड़क पर गाडि़याँ थीं इक्का-दुक्का

सुबह की सैर में शामिल सर्र- सर्र गुज़रतीं

फ्लाईओवर के पास पहुँचा तो दिखा सूरज

लाल तलमलाता सा पुल चढ़ता

मैंने उससे पहले ही कह दिया-- हलो...

आगे पुल के नीचे के सबसे हवादार इलाके में

सो रहे थे मजूर अपने कुनबे के साथ

उनके साथ थे कुत्ते

सिग्‍नलों के हिसाब से

दौड़-दौड़ सड़कें पार करते

वे भूँक रहे थे-- आ ज़ा दी

ट्रैफिक पार कर फुटपाथ पर पहुँचा

तो मिले एक वृद्ध

डंडे के सहारे निकले सैर पर

मैंने कहा-- हलो , उन्होंने जोड़ा

हाँ-हाँ चलो

हवाएँ तो संग हैं ही ... अभी आता हूँ

तभी दो कुत्ते दिखे ... पट्टेदार ... सैर पर निकले

उन्हें देखते ही आगे-आगे भागती हवा

दुबक गई मेरे पीछे

खैर कुत्तों ने सूंघ-सांघ कर छोड़ा हवा को

अब मैं भी लपका

लो आ गया पार्क

और जिम - खट खट खटाक

लौहदंड - डंबल भाँजते युवक

ओह-कितनी भीड़ है इधर

हवाओं ने इशारा किया- चलो उधर

उस कोने वाली बेंच पर

उधर मैं भी भाग सकूंगी बे लगाम

मैंने कहा - अच्छा ...


अब लोग थे ढेरों आते-जाते

कामचोरी की चरबियाँ काटते

आपनी-अपनी तोंदों के

इनकिलाब से परेशान

आफ़िस जाकर आठ घंटे

ठस्स कुर्सियों में धँसे रहने की

क्षमता जुटाते

और किशोरियां थीं

अपने नवोदित वक्षों के कंपनों को

उत्सुक निगाहों से चुरातीं-टहलतीं

और बच्‍चे ढलान पर फिसलते बार-बार

और पाँत में चादर पर विराजमान

स्त्री-पुरूष


योगा-श्वास प्रश्वास और वृथा हँसी का उद्योग करते

इस आमद-रफ़्त से

सूरज थोड़ा परेशान हुआ

हवा कुछ गर्मायी और हाँफने लगी

सबसे पहले महिलाएँ गईं बेडौल

फिर बूढ़े, फिर किशोरियाँ के पीछे

कुत्ता चराते लड़के गए

अब उठी वह युवती

पर उससे पहले उसके वक्ष उठे

और उनकी अग्रगामिता से परेशान

अपनी बाँहों को आकाश में तान

उसने एक झटका दिया उन्हें

फिर चल निकली

उससे दूरी बनाता उठा युवक भी

हौले-हौले

सबसे अं‍त में खेलते बच्चे चले

और हवा हो गए

अब उतर आईं गिलहरियाँ

अशोक वृक्ष से नीचे

मैंनाएँ भी उतरीं इधर-उधर से

पाइप से बहते पानी से ढीली हुई मिट्टी को

खोद-खोद

निकालने लगे काग-कौए

कीड़ों और चेरों को


अब चलने का वक़्त हो चुका है

सोचा मैंने और उठा - सड़क पर भागा

वहाँ हरसिंगार और अमलतास की

ताज़ी कलियाँ बिखरी थीं

जिन्हें बुहारने को तत्पर सफ़ाई कर्मी

अपने झाड़ओं को तौलता

अपनी कमर ऐंठ रहा था


इधर नीम पर बन आये थे

सफ़ेद बेल-बूटे

और टिकोड़े आम के बेशुमार

फिर पीपल ने अपने हरेपन से

कचकचाकर हल्का शोर-सा किया

हवा के साथ मिल कर

तभी

मोबाइल बजा-

किसी की सुबह हुई थी कहीं ...

हलो ... हाँ ... हाँ ... हाँ

आप तैयार हों

मैं पहुँच रहा हूँ ...।