सिसक रहल हे / राम सिंहासन सिंह
सिसक रहल हे आज मनुजता ई धरती के अंगना में।
साधु बनल सवाधु विचरे नोच रहल हे जन-जन के।।
चारो ओर लूट-पाट हे-
लोभ के फैलल आँधी।
अब न जबाहर कोई ईहाँ हे-
ना रहलन अब गाँधी।
सीतल-मन्द-सुगन्ध कहाँ बहे हवा जे सनसन से।
सिसक रहल हे आज मनुजता ई धरती के अंगना में।
रोप हे जे पेड़ बबूल के
ओही आम अब पावऽ हे
रछक भी भछक बनके
ऊ आज नरेटी दाबऽ हे!
दया धरम न ओकरा तनिको कोड़ा मारे हन-हन के।
सिसक रहल हे आज मनुजता ई धरती के अंगना में।
सत्य न्याय चूल्हा में गेलौ
धरम-करम के बात न हे
खून-पसीना एक करे जो
ओकरा रोटी-भात ना हे।
रीत-नीत दफनावल जाहे बढ़का गहिरा खन-खन के।
सिसक रहल हे आज मनुजता ई धरती के अंगना में।
सहर-गाँव में फेक रहल हे
सकुनी अपन पासा
भाई-भाई में बैर बढ़ाके
देखे खुब तमासा।
पांचाली के लाज लूट रहल आग उठऽ हे तन-मन से।
सिसक रहल हे आज मनुजता ई धरती के अंगना में।