भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थाती / राम सिंहासन सिंह

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 1 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राम सिंहासन सिंह |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तकिन बूँद भर स्नेह डाल दऽ
जलते रहतो बाती।
माटी के ई दीया हम्मर
छोट-मोट हौ सबसे सुन्नर
एकरे में सब जोत भरल हौ
सूरज तक के ताप चढ़ल हौ।
छा जयतो जब घोर अँधेरा
कहीं न मिलतौ रैन-बसेरा
ये ही दियरा राह दिखैतो
मनुआँ में उत्साह जगैतो
ये ही से तू एकरा देखऽ
एकर गुनवा सदा परेखऽ
एकरा तनिका तुच्छ न मानऽ
एकरे में जीवन हे जानऽ
प्यार जताब, मान बढ़ैतो
परवत तक पर यही चढ़ैतो
माटी ही हौ जेकरा में हम
आखिर में मिल जाही हरदम
ओकरे से फिर दीया बनके
जगतइ आनन घर-आँगन के
ये ही से तू सीस चढ़ाबऽ-
माटी के तू मान बढ़ाबऽ
प्यार जताबऽ मन से इ हौ
जीवन भर के थाती।
तनिक बूँद भर स्नेह डाल दऽ
जलते रहतो बाती।