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दुपहर में सितारों की चमक ढूंढ रही हूं / रंजना वर्मा

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दुपहर में सितारों की चमक ढूंढ़ रही हूँ
टूटी हुई चूड़ी में खनक ढूंढ रही हूँ

मालूम है मुरझाये हुए गुल नहीं खिलते
सूखे हुए फूलों में महक ढूंढ़ रही हूँ

पायल यूँ गिरी टूट के घुँघरू बिखर गये
बिखरे हुए घुँघरू में छनक ढूंढ़ रही हूँ

गुलशन की उदासी का सबब जानती नहीं
कलियों में पुरानी वो लहक ढूंढ़ रही हूँ

पतझड़ में झड़े पत्ते बहुत दूर उड़ गये
उन में मैं बहारों की झलक ढूंढ़ रही हूँ

दाना नहीं है अन्न का सीली हैं लकड़ियाँ
ठंढे पड़े चूल्हे में दहक ढूंढ़ रही हूँ

मयकश ने पी रखी थी गले तक ग़मों की मय
मैं उस के भी कदमों की बहक ढूंढ़ रही हूँ