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ढलने लगा जलाल गुले आफ़ताब का / रंजना वर्मा
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ढलने लगा जलाल गुले आफ़ताब का
फीका हुआ है नूर सा चेहरा जनाब का
चूनर में सुर्ख़ साँझ की मुखड़ा छुपा हुआ
सरका के देख लीजिये मुँह माहताब का
लिख कर किरन है डायरी चन्दा को दे गई
हर पल पलट रही है वो पन्ना किताब का
कुछ ग़म सिमट केयूँ ही हैं पहलू में आ गये
जैसे कि ये दामन हो किसी यार ख़्वाब का
दिल से किसी गरीब की करते रहो मदद
दुनियाँ में यही काम है सब से सवाब का
करते रहे हैं तर्क भला है कि या बुरा
है सब को इंतज़ार तुम्हारे जवाब का
मुर्दा नहीं हैं वादियाँ पलती है ज़िन्दगी
गूँजेगा सुर यहाँ भी नये इंक़लाब का