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जहाँ जीने की आस रहती है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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जहाँ जीने की आस रहती है।
ज़िंदगी आस-पास रहती है।
घास को काट कर बने बँगले,
फिर भी ख़िद्मत में घास रहती है।
जिन का सच हो बहुत-बहुत कड़वा,
लब पे हरदम मिठास रहती है।
जाने क्या हो गया सियासत को,
ये सदा बेलिबास रहती है।
स्वर्ण पिंजरा चमक-चमक उठता,
सोन चिड़िया उदास रहती है।