भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जहाँ जीने की आस रहती है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:47, 4 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ जीने की आस रहती है।
ज़िंदगी आस-पास रहती है।

घास को काट कर बने बँगले,
फिर भी ख़िद्मत में घास रहती है।

जिन का सच हो बहुत-बहुत कड़वा,
लब पे हरदम मिठास रहती है।

जाने क्या हो गया सियासत को,
ये सदा बेलिबास रहती है।

स्वर्ण पिंजरा चमक-चमक उठता,
सोन चिड़िया उदास रहती है।