भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीने का या मरने का / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:48, 4 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जीने का या मरने का।
ढंग अलग हो करने का।
सबका मूल्य बढ़ा लेकिन,
भाव गिरा है धरने का।
मुर्दों को सबसे ज़्यादा,
डर लगता है मरने का।
सिर्फ़ वोट देने भर से,
कुछ भी नहीं सुधरने का।
गिरने दो उसको ‘सज्जन’,
गिरना गुण है झरने का।