भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब खाते हैं इक बोता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:58, 4 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सब खाते हैं इक बोता है।
ऐसा फल अच्छा होता है।
पूँजीपतियों के पापों को,
कोई तो छुपकर धोता है।
इक दुनिया अलग दिखी उसको,
जिसने भी मारा गोता है।
हर खेत सुनहरे सपनों का,
झूटे वादों ने जोता है।
महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है।
मेरे दिल का बच्चा जाकर,
यादों की छत पर सोता है।
भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’,
सच्चा तो केवल तोता है।