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आभारी हूँ कविते / रामदरश मिश्र

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तुमने मुझे कितना कुछ दिया
मेरी कविते
जो बीत गया,
वह भी मुझमें जीवित है तुम्हारे सहारे
आज के जलते समय में भी
मेरा मन पा लेता है कोई घनी छाँह
और मनुष्यता के प्रति
मरता हुआ विश्वास
फिर-फिर जी उठता है

आज मौसमों ने भी
अपना स्वभाव बदल दिया है
उनकी आत्मीय छवियाँ
धूमिल हो गई हैं
और उनमें उग आई है
अनजानी सी विरूपता
लेकिन तुमने मुझे
कल्पना की आँख दे रखी है
जो देख लेती है खोई हुई छवियों को
अब देखो, सावन सूखा-सूखा जा रहा है
निरभ्र नभ बरसा रहा है चिलचिलाती धूप
नल खौलता हुआ पानी फेंक रहे हैं
जड़-चेतन से टकरा रही हैं बेदर्द हवाएँ
गीत झरने वाले कंठों में सन्नाटा छाया है
उद्विग्न होकर लोग कोस रहे हैं मौसम को
लेकिन मेरी कविते
मैं तो तुममय होकर अनुभव कर रहा हूँ
दूसरा सावन-भादों
कमरे में बैठा हूँ रिमझिम बारिश हो रही है
लोग भीग रहे हैं
आदिगंत व्याप्त धानों की उन्मत्त फसल
अपनी हरीतिमा लुटा रही है
और झूम रही है, लहरा रही है पुरवा में
उसका उल्लास
गाँव की आँखों में सुखद भविष्य बनकर
दीप्त हो रहा है
पेड़ों के पत्तों पर गिरती हुई बूँदें
कोई आर्द्र गीत रच रही हैं
और कहीं पपीहा
पुकार रहा है ‘पी कहाँ, पी कहाँ’
ओसारों में झूले पड़े हैं
वनिताओं के खुले केश लहरा रहे हैं-
हवाओं की तरह
उनके कंठों से फूटती हुई कजली-धुन
बाहर निकल निकल कर नहा रही है
रिमझिम फुहारों में

अभारी हूँ कविते
तुमने इस तप्त समय में भी
मुझे भिगो दिया भीतर तक
और मैं
गति-स्पंदित जीवन-राग की रचना के लिए
अपने को तैयार कर रहा हूँ।
-25.8.2014