भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परछाईं / रामदरश मिश्र

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:36, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामदरश मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जल हो या थल
विकट सुनसान हो या जन-रव-गुंजित बस्ती
सड़क हो या गली
फूलों का हँसता लोक हो या काँटों का चिड़चिड़ा विस्तार
और कोई साथ हो, न हो
यह तो साथ लगी रहती है
सुबह को जैसे ही धूप निकलती है
यह मेरे साथ हो लेती है-
कभी लघु आकार में, कभी दीर्घ आकार में
मैं जब भी अकेलेपन की अनुभूति से गुज़रता हूँ
यह कहती है-
”मैं हूँ न
और देखो मैं पराई नहीं हूँ
तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ“
जब रात होती है
तब यह मुझे अकेला छोड़ जाती है
विश्राम की गोद में सपने देखने के लिए
और कहती है-
”कल यात्रा में फिर मिलूँगी दोस्त!“
-6.9.2014