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दोपहर की धूप में हम / मानोशी

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दोपहर की धूप में
हम ढूँढते हैं छाँव कोई ।

सुखद बंधन स्वप्न जैसा
मिलन को है हृदय आकुल,
हो न जाए शेष रजनी
प्राण भय से सदा व्याकुल,
एक दूजे बिन अधूरी कथा का
क्या ठाँव कोई ।

राह में कुछ कंकड़ों की
चुभन तो होना ज़रूरी,
पास हों मन तो भला क्या
मायने रखती है दूरी,
चीखता है मन व्यथा से
पर न थकते पाँव कोई ।

बहुत चंचल है लहर पर
दिख रहा हमको किनारा,
कालिमा घन, धुप अँधेरा
मन मगर हिम्मत न हारा,
है अटल विश्वास विधि पर
खे रहा है नाव कोई ।