वृक्ष की नियति / तारादत्त निर्विरोध
उसने सूने-जंगलाती क्षेत्र में
एक पौधा रोपा
और हवाओं से कहा,
इसे पनपने देना,
जब विश्वास का मौसम आएगा
यह विवेक के साथ विकसित होकर
अपने पाँवों पर खडा होगा,
एक दिन यह जरूर बडा होगा।
फिर उसने
मानसून की गीली आँखों में
हिलती हुई जडों
फरफराते पत्तों
और लदी लरजती शाखों के
फलों को दिखा कर कहा,
मौसम चाहे कितने ही रूप बदले
यह वृक्ष नहीं गिरना चाहिए
और यह भी नहीं कि कोई इसे
समूल काट दे,
संबंधों की गंध के नाम पर
बाँट दे,
तुम्हें वृक्ष को खडा ही रखना है,
प्रतिकूल हवाओं में भी
बडा ही रखना है।
एक अन्तराल के बाद
वृक्ष प्रेम पाकर जिया
और उसने बाद की पीढयों को भी
पनपने दिया।
वृक्ष और भी लगाए गए,
वृक्षारोपण के लिए
सभी के मन जगाए गए।
फिर एक दिन ऐसा आया
वृक्ष की शाखों को काट ले गए
लोग,
पत्तों से जुड गए अभाव-अभियोग,
एक बूढा वृक्ष गिर-खिर गया,
युगों-युगों का सपना
आँखों में पला, तिरा
और पारे की तरह
बिखर गया।