भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दलित कुसुम से / रामावतार यादव 'शक्र'
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:46, 14 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामावतार यादव 'शक्र' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
उलझाया था जग को तुमने
रूप-जाल निज फैला कर!
सौरभ की मधुमय वाणी में
गीत जवानी का गाकर।
लूट मचाई अलि ने घर में,
किन्तु नहीं तुमको यह ज्ञात।
क्योंकि अमर के शिर पर चढ़ने
विकल रहे तुम जीवन भर।
और, आज जब गिरे टूटकर,
लिया गोद में धूलों ने।
”देखो र्को पास न आता“
कहा विहँस कर शूलों ने।
”यौवन क्षणिक नशा जीवन का“
-धूल उड़ा कह रहा समीर।
”क्या-क्या कर्म किए, अब सोचो“
-याद दिलाई भूलों ने।
-नवम्बर, 1928