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टिहरी को याद करते हुए / विजय गौड़

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सामन्ती खूँखरी की नोंक से नहीं
पानी की फिसलती हुई धार से
खेला गया कचियाने का खेल
विक्टोरिया की स्मृति का गवाह
आँखों में धँसाए वक़्त का गज़र
टिहरी का घण्टाघर
घरों की ऊँचाईयों से भी ऊपर
समुद्र के किनारे बने लाइट-हाऊस सा
उठा हुआ है अभी
स्मृतियों में अभी दर्ज है
नदियों का संगम,
पूरब का छोर भिलँगना
और भागीरथी उतरती थी
उत्तर की ओर से
आमों के बगीचे के पार
गाँव में फिसलती रहती थी धूप
जो झील के पानी में
बिजली बन कर बिखर गई है
शायद