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उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा / सुरेश चन्द्र शौक़

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उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा

भरोसा कीजिये किस पर ज़ियादा


घरों की पासबानी फ़र्ज़ जिनका

वही अब लूटते हैं घर ज़ियादा


सफ़र का देखिये अंजाम क्या हो

मुसाफ़िर कम हैं और रहबर ज़ियादा


हया से भी सजाये रखना ख़ुद को

दमकता है यही ज़ेवर ज़ियादा


हरीफ़ों से नहीं मैं इतना ख़ाइफ़

मुझे लगता है ख़ुद से डर ज़ियादा


मिलेगी फ़त्ह किस को देखना है

उधर नेज़े इधर है सर ज़ियादा


वहाँ शीशे की है मेरी तिजारत

बरसते हैं जहाँ पत्थर ज़ियादा


उसी ने पुश्त से घोंपा है ख़ंजर

भरोसा था मुझे जिस पर ज़ियादा


जहाँ बहुतात है पहले ही ज़र की

बरसता है वहाँ ही ज़र ज़ियादा


वहाँ ऐ ‘शौक़’! ख़ुश्बू ढूँढता हूँ

जहाँ कागज़ के हैं पैकर ज़ियादा


हरीफ़=शत्रु; ख़ाइफ़=भयभीत; तिजारत=व्यापार; पुश्त=पीठ; ज़र=धन; बहुतात= भरमार; पैकर=जिस्म