भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुँथा मिलन कब / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:12, 22 अप्रैल 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


क्षीण प्रतीक्षा के धागे ,अर्थहीन आशा के मोती ।
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से, टूटी अश्रुमाल पिरोती ॥
शीतनिशा में हर पात झरा है
पीर का बिरवा भी हुआ हरा है ।
मन-आँगन में घना अँधेरा है
यह आश्वासन से कब सँवरा है ॥
उपहास किया करते सब कि मैं केवल भार हूँ ढोती …
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से , टूटी अश्रुमाल पिरोती ।॥
थे उपहार लिये तुम हाथ खड़े
वंदनवार प्रिये उर- द्वार पड़े ।
कुछ बादल मन- नभ पर उमड़े
नहीं घटा अब कोई भी घुमड़े ॥
दावानल में लहराती बरसने का सभी सुख खोती।
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से ,टूटी अश्रुमाल पिरोती॥
कब आना होगा अब इस उपवन
उन्मुक्त लताओं का मैं मधुवन।
नवपुष्प खिले, भौरों के गुंजन
सजेगा तुम संग विकसित यौवन॥
पथ में प्रिय पुष्प बिछाते, पर विरहन काँटों में सोती।
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से,टूटी अश्रुमाल पिरोती॥